8 Reasons: पेरेंट्स सिर्फ हुक्म न दें ,बच्चों को अपने Decision लेने में Support भी करें

‘‘मां-बाप के लिए बच्चे हमेशा बच्चे ही रहते हैं’’ ‘‘कोई मां-बाप अपने बच्चे का बुरा नहीं चाहता‘‘

ज्यादतर मामलों में यह तब ही सुनाई पड़ता है जब पेरेंट्स अपने बच्चों के किसी डिसिजन पर खुश न हो।

पेरेंट्स को वाकई अच्छा लगता है जब उनके बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो काबिल बनते हैं। लेकिन बच्चों की वही काबिलियत पेरेंट्स को कई बार नागवार गुजरती है, जब बच्चे खुद से कोई फैसला लेते हैं।

कुछ का मानना है पेरेंट्स को बच्चों के डिसीजन में उनका साथ देना चाहिए। वहीं कुछ जोर देते हैं कि बच्चों को फैसले लेने से पहले पेरेंट्स से सलाह और परमिशन लेनी चाहिए।

यह एक कभी न खत्म होने वाला डिबेट हो सकता है।

इसलिए निवेश गंगाा में इस बार ‘रिलेशनशिप’ कॉलम में हम जानेंगे कि आखिर क्यों पेरेंट्स को बच्चों को सिर्फ आदेश नहीं देना चाहिए।

बल्कि अपने बच्चों के फैसलों में पेरेंट्स का क्या रोल हो और कैसे वे अपने बच्चों को बेहतर डिसिजन लेने लायक बनाकर उन्हें खुद से फैसले लेने का हक भी दे सकते हैं।

1# Decision Making की आदत बच्चे के लिए बेहतर

जब भी हम कोई आइडिया सोचते हैं, उस पर काम करते हैं और वह सही होता है तो हमें बेहद खुशी मिलती हैं। यही बात बच्चों पर भी लागू होती है।

जब आपका बच्चा अपनी समझ से सोच विचार कर कोई फैसला लेता है और वह डिसिजन सही साबित होता है तो बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं होता।

बच्चा खुद को बेहद सक्षम और काॅन्फिडेंट महसूस करता है। यही छोटी छोटी कामयाबी उन्हें कम उम्र से ही पाॅजिटिव माइंडसेट के साथ सही फैसले लेने की स्किल डेवलेप करने में मोटिवेट करती हैं।

अपने बच्चे को उनकी सोच, डिसिजन और एबिलिटी के लिए वैल्यूबल महसूस कराने का सबसे उम्दा तरीका है, उन्हें शुरू से ही छोटे छोटे फैसले लेने की परमिशन देना

2# Foreign में पेरेंट्स बच्चों को लेने देते हैं फैसले

बड़े हो रहे बच्चों को काफी हद तक खुद से अपने फैसले लेने की छूट देने के मामले में यूरोप के देश आगे हैं। ऐसा ResearchGate की ओर से कराए गए एक सर्वे में उजगार हुआ है।

रिसर्चगेट के इस सर्वे में यूरोप के दो देश बेल्जियम और नीदरलैंड में किशोरों (एडोलेसेंट) के Health व Medical से जुड़े फैसले खुद लेने के बारे में पेरेंट्स से उनकी राय जानी गई।

स्टडी के मुताबिक 2 पीडियाट्रिशियन डिपार्टमेंट (बाल चिकित्सा विभाग) की ओर से एक ऑनलाइन सवालों की लिस्ट बनाई गई।
कम से कम एक बच्चे वाले (35-55 साल) एज ग्रुप वाले 984 बेल्जियम और 992 नीदरलैंड के पेरेंट्स से इस Online सर्वे में सवाल पूछे गए। जिसमें से 60 परसेंट महिला व 40 परसेंट पुरुष पेरेंट थे।

Survey में निकलकर आया कि कुल मिलाकर, 58.6-70.4% पेरेंट्स अपने युवा हो रहे बच्चों को अपना फैसला खुद लेने की छूट देते हैं।
वहीं बेल्जियम के पेरेंट्स ने 16.7 साल की उम्र को बच्चों के लिहाज से सही फैसला लेने वाला माना।

जबकि नीदरलैंड के डच पेरेंट्स ने 16 साल सेे भी कम उम्र को खुद से decision लेने के लिए उचित ठहराया।

3# गलतियां Life का हिस्सा, फैसले लेना जरूरी

हममें से हर किसी से हर उम्र में छोटी-बड़ी गलतियां होती ही हैं। कितनी भी सावधानी बरत ली जाएं, किसी न किसी मोड़ पर कभी न कभी चूक हो ही जाती है। इसीलिए इसे जिंदगी कहते हैं।

लेकिन दिक्कत यह है कि ज्यादातर पेरेंट्स यह मानते हैं कि उन्हें ही ज्यादा सावधानी बरतनी हैं ताकि उनके बच्चों से कोई गलती न हो। जिससे उन्हें किसी तरह का दुख या नुकसान हो।

यह सोच बेशक इमोशनल है लेकिन साथ ही बचकानी भी है क्योंकि गलतियां करना या हो जाना जिंदगी का अहम हिस्सा है। इसी से हम सीखने की राह में आगे बढ़ते हैं।

याद रखें आपके बच्चों को अपनी जिंदगी में रोज ही खुद से फैसले लेने की जरूरत है। Problem solving और Decision making का हुनर इस समाज में हर एक कामकाजी एडल्ट इंसान के लिए बेहद अहम है।

इसलिए जितना जल्द हो सके अपने बच्चों से खुद से फैसले लेने की शुरुआत कराएं। गलतियाँ जीवन का हिस्सा हैं इसलिए अपने बच्चों को इसके डर से डिसिजन लेने की काबिलियत पैदा करने से दूर न करें।

4# बच्चों को Personal Space दें पेरेंट्स

बच्चे जब छोटे होते हैं तो पेरेंट्स की हर बात मानते हैं कभी डर से कभी सहमति से। लेकिन बड़े होते हुए उनके बिहेवियर में बदलाव आते हैं।

पेरेंट्स के लिए यह असली चुनौती है। लेकिन इस चुनौती से निपटना पेरेंट्स को सीखना चाहिए। ज्यादातर मामलों में पेरेंट्स चिल्लाकर, डांटकर बच्चों पर अपने फैसले थोपने लगते हैं जो गलत है।

याद रखें बच्चे बड़े होकर अपने फैसले खुद लेना पसंद करते हैं। कई बार ये फैसले पेरेंट्स के मनमुताबिक भी नहीं होते हैं। जिससे बच्चों और पेरेंट्स के बीच में बहस, झगड़े, मनमुटाव भी हो सकते हैं।

ऐसी सिचुएशन से डील करना बच्चों और पेरेंट्स दोनों के लिए मुश्किल हो जाता है। इसलिए पेरेंट्स को यह समझना होगा कि वे अपने बच्चों को थोड़ा Personal space दें।

बच्चे किस तरह से सोच रहे, उनका नजरिया क्या है इसे अगर मंजूर नहीं सकते तो कम से कम जानना ही शुरू करें।

ऐसा होने पर बच्चे भी खुद से अपने दायरे में पेरेंट्स को आने देते हैं। साथ ही उनसे अपने मन की बात कहने में कंफर्मटेबल महसूस करने लगते हैं।

5# उम्र के हिसाब से Decision लेना सिखाएं पेरेंट्स

बच्चों को आदेश न दे तो क्या हर चीज में उन्हें मनमानी करने दें? वे जो भी करना चाहें, जो फैसला ले क्या आंखे मूंदकर उन्हें करने दें?

नहीं बिल्कुल नहीं। Extreme (चरम) हर चीज की खराब होती है।

पेरेंट्स को अपने बच्चों को उनकी उम्र के हिसाब से डिसिजन लेने की परमिशन देनी चाहिए। जब बच्चे छोटे हों तो उन्हें चीजों को प्रैक्टिकली समझाएं फिर फैसला लेने में मदद करें।

बच्चों में बचपन से ही Options देकर डिसिजन लेने की समझ डेवलेप करें। जैसे बच्चे से पूछे वो नाश्ते में ओट्स खाएगा या दलिया। वे वाॅटरपार्क जाना चाहेंगे या माॅल के गेम जोन में। वे अपने खाली समय में ड्राइंग करेंगे या गिटार प्रैक्टिस वगेराह।

इस तरह दिए गए Options में किसी एक को चुनने की कवायद बच्चों में खुद से डिसिजन लेने फीलिंग्स लाती है। उन्हें लगता है असल में वे अपने फैसलों को कंट्रोल कर रहे।

यह तरकीब उनमें फैसले लेने की क्षमता और आत्मविश्वास पैदा करती है। अपने सही गाइडेंस में हमेशा सुनिश्चित करें कि आपके बच्चों के फैसले उनकी उम्र के मुताबिक और Progressive हों।

6# दूसरे बच्चों के साथ Compare करना गलत

एक बड़ी गलती जो अक्सर कई बार पेरेंट्स करते हैं कि वे अपने बच्चों को दूसरों के बच्चों से कंपेयर करने लगते हैं।

जैसे ‘‘देखो फलाने का लड़का पढ़ाई में कितना गजब कर रहा या ढिमकाने की बेटी जाॅब में कितना बढ़िया पैकेज पर कमा रही’’
बच्चों को बेहतर करने के लिए कंपेयर करके मोटिवेट करना बुरा कैसा?

आपको भी आपके ये लाॅजिक सही लगते हैं न!

जरा सोचिए किसी दिन आप थक हार कर अपने काम से घर आएं और आपका बच्चा एक गिलास पानी देने के बजाए आपको एक बड़ा मग मोटिवेशन दें!

‘‘डैडी, रिंकू के पापा ने नई SUV Car ली है, आप भी इनकम बढ़ाइये कम से कम एक हैचबैक कार ही ले लीजिए’’

हम सभी जानते हैं उस बच्चे का क्या हश्र होगा। नहीं?

यही हाल बच्चों का भी है। अगर वे अपना गुस्सा आप पर निकाल पाते तो वे भी रिएक्ट करते। याद रखें औरों के बच्चों के साथ कंपेयर करने से आपके बच्चे आपसे दूरी बना सकते हैं, या चिड़चिड़े हो सकते हैं।

अगर आपको बच्चों को बेहतर करने के लिए कंपेयर भी करना हैं, तो उन्हें उन्हीं के बीते कल से कंपेयर करें। जैसे वो बीते साल के मुकाबले इस साल कितने ज्यादा फिट हो गए हैं। पढ़ाई में उनका स्कोर पहले से कितना अच्छा हो गया है।

7#  लोग क्या कहेंगे?: न दिखाएँ सोसाइटी का डर


एक कहावत है दुनिया का सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग?

बच्चों के फैसलों पर ब्रेक लगाने के लिए अक्सर पेरेंट्स उन्हें सोसाइटी का डर दिखाते हैं।

‘‘चार लोग क्या कहेंगे, अगर तुमने इससे शादी कर ली। समाज क्या कहेगा अगर तुम ऐसे काम वाली नौकरी करोगे? तुम्हारे इस फैसले से बिरादरी में कितनी थू थू होगी हमारी’’

लगभग हर बच्चा अपनी जवानी आने तक ऐसे कमेंट्स अपने पेरेंट्स से कभी न कभी सुनता ही है।

कई बार कुछ पेरेंट्स के लिए समाज का डर इतना ज्यादा बड़ा बन जाता है कि वे बेहद साधारण बातों के लिए भी अपने जवान हो रहे बच्चों पर कोई काम न करने का दबाव डालना शुरु कर देते हैं।

8# न करें बच्चों के साथ Emotional ब्लैकमेलिंग

‘‘हमने तुम्हारे लिए इतना कुछ किया, इतनी मुश्किलें झेली और तुमने क्या किया?’’ ‘‘ एक-एक पैसा जोड़कर पढ़ाया-लिखाया, पाल पोस कर काबिल बनाया और तुम ये नहीं कर पाए?’’

अक्सर कई पेरेंट्स अपने बच्चों के साथ हाॅट डिस्कशन में ऐसा कहते हैं। इस तरह से पेरेंट्स कई बार अपनी नाराजगी जाहिर करते हैं।

वहीं कई बार बच्चों को अपनी बात मनवाने के लिए भी पेरेंट्स ऐसा करने से नहीं चूकते। कई बार तो पेरेंट्स अन्य लोगों के सामने ही बच्चों से ऐसा कहकर भड़ास और हताशा जाहिर कर देते हैं।

लेकिन याद रखें कि इस तरीके से अपनी नाराजगी दिखाने से आप बच्चों को इमोशनली डैमेज कर रहे होते हैं। ऐसे में वे कई बार आगे नहीं बढ़ पाते हैं और अंदर ही अंदर घुट रहे होते हैं।

तो इसे करने से बचें। पेरेंट्स को अपने बड़े हो रहे बच्चों को कभी भी इमोशनली ब्लैकमेल नहीं करना चाहिए।

आखिर में

यह तो तय है कि अक्सर पेरेंट्स और उनके जवान हो रहे बच्चों के विचार आपस में मेल नहीं खाएंगे।

पेरेंट्स यह बात समझें कि नए दौर में युवा अपने डिसीजन खुद लेना पसंद करते हैं।

आप किसी को Cooking सीखाकर क्या यह तय कर सकते हैं कि वह हमेशा आपके कहने पर आपकी पसंद का ही पकाएं?
नहीं न!

पेरेंट्स अपने बच्चों को उनके फैसले से जुड़े तमाम पहलू बताएं और अपने फैसले के रिजल्ट झेलने की जिम्मेदारी लेना भी सिखाएं।

कुछ चीजें उम्मीद के मुताबिक नहीं हो सकती हैं पर आखिर में इंसान ऐसे ही सीखते हैं।

खुद पर यकीन करें, बच्चों पर भरोसा करें और कुछ चीजें भविष्य पर छोड़ दें।

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